पुरातत्व वह विज्ञान है जिसके माध्यम से पृथ्वी के गर्भ में छुपी हुई सामग्रीयो की खुदाई कर प्राचीन काल के लोगों के भौतिक जीवन का ज्ञान प्राप्त किया जाता है
प्राचीन इतिहास की जानकारी के लिए पुरातात्विक प्रमाण से बहुत अधिक सहायता मिलती है यह साधन अत्यंत प्रमाणित है तथा इनसे भारतीय इतिहास के अनेक अंधयुगों पर प्रकाश पड़ता है ।
जहां साहित्यिक साक्ष्य मौन है वहां हमारी सहायता पुरातात्विक साक्ष्य करते हैं पुरातत्व के अंतर्गत तीन प्रकार के साक्ष्य आते हैं
(1) अभिलेख
(2) मुद्रा
(3) स्मारक
अभिलेख -प्राचीन इतिहास के पुनर्निर्माण में अभिलेखो से बड़ी मदद मिली है अभिलेखों के ऐतिहासिक महत्त्व साहित्यिक साक्ष्य से अधिक यह अभिलेख पाषाण - शिलाओं , स्तम्भों , ताम्रपत्रों ,दीवारों , मुद्राओं एवं प्रतिमाओ पर खुदे हुए हैं ।
सबसे प्राचीन अभिलेख मध्य एशिया के बोघजकोई से प्राप्त अभिलेख है ।यह हित्ती नरेश सप्पिलुल्युमा तथा मितन्नी नरेश मतिवजा के मध्य संधि का उल्लेख करता है ।जिनके साक्षी के रुप में वैदिक देवता मित्र, वरुण, इंद्र, और नासत्य के नाम मिलते हैं ।
यह लगभग 1400 ई पु. के हैं तथा इनसे ऋग्वेद की तिथि ज्ञात करने में सहायता मिलती है ।पारसीक नरेशो के अभिलेख हमें पश्चिमोत्तर भारत में ईरानी साम्राज्य के विस्तार की सूचना देते हैं ।परंतु अपने यथार्थ रूप में अभिलेख हमें अशोक के शासन काल से ही मिलने लगें है ।अशोक के विभिन्न शिलालेख तथा स्तम्भ लेख देश के विभिन्न स्थानों से प्राप्त होते हैं ।अभिलेखों से अशोक के साम्राज्य की सीमा उसके धर्म तथा शासन पर महत्वपूर्ण प्रकाश पड़ता है ।देवदत्त रामकृष्ण भांडारकर जैसे एक चोटी के विद्वान ने अभिलेखों के आधार पर ही अशोक का इतिहास लिखने का सफल प्रयास करता है।
अशोक के बाद भी अभिलेखों की परंपरा कायम रही अब हमें अनेक प्रशस्तियां मिलने लगती हैं जिनमें दरबारी कवियों अथवा लेखको द्वारा अपने आश्रयदाताओं की प्रशंसा के शब्द मिलते हैं तथापि यह प्रशस्थियाँ अतिरंजित हैं तथापि ऐसे इनसे संबंधित शासको के विषय में अनेक महत्वपूर्ण बातें ज्ञात होती है ।
ऐसे लेखो में खारवेल का हाथीगुंफा अभिलेख
शक छत्रक रुद्रदामन का जूनागढ़ अभिलेख
सातवाहन नरेश पुलुमावी का नासिक गुहालेख
गुप्त सम्राट समुद्रगुप्त का प्रयाग स्तंभ लेख
मालव् नरेश यशोधर्मन का मंदसौर अभिलेख
चालुक्य नरेश पुलकेशिन द्वितीय का एलोह अभिलेख
प्रतिहार नरेश भोज का ग्वालियर अभिलेख
आज विशेष रुप से प्रसिद्ध है जिनमें से अधिकांश लिखो में इनसे से संबंधित राजाओं के सैन्य अभियानों की सूचना मिलती है । जैसे समुद्रगुप्त के प्रयाग स्तंभ लेख में उसकी विजयों का विशद विवरण है ।
एलोह का लेख पुल्केशिन और हर्ष के युद्ध का विवरण देता है ।
ग्वालियर लेख से गुर्जर प्रतिहार शासकों के विषय में विस्तृत सूचनाएं प्राप्त होती है ।
गैर सरकारी लेखो में यवन राजदूत हेलियोडोरस का बेसनगर (विदिशा )से प्राप्त गरुण स्तम्भ लेख विशेष रुप से उल्लेखनीय है । जिससे द्वितीय सताब्दी ई पूर्व में मध्य भारत में भागवत धर्म विकसित होने का प्रमाण मिलता है ।
कुछ अभिलेख मूर्तियों ताम्रपत्र आदि पर अंकित मिलते है इनसे भी इतिहास लेखन के लिए उपयोगी सामग्री प्राप्त होती है ।
मध्य प्रदेश के एरण से प्राप्त वाराह प्रतिमा पर हुणराज तोरमाण का लेख अंकित है जिससे उसके विषय में सूचनाएं मिलती है । पूर्व मध्यकाल में शासन करने वाले राजपूतों के विभिन्न राजवंशों में से प्रत्येक के कई लेख मिलते हैं जिनसे संबंधित राज्यों की उपलब्धियों के साथ साथ समाज एवं संस्कृति का भी ज्ञान प्राप्त होता है । इनमें गुर्जर प्रतिहार वंश की जोधपुर तथा ग्वालियर प्रशस्ति ,पाल वंश का खालीमपुर ,नालंदा तथा भागलपुर के लेख , सेनवंशी विजय सेन की देवपाड़ा प्रशस्ति, गहड़वाल शासक गोविंदचंद्र का कामौली अभिलेख ,
परमार भोज देव का वंशवर लेख तथा जयसिंह की उदयपुर प्रशस्ति, चंदेल धंग का खजुराहो लेख,
चेदि कर्ण का बनारस तथा यश कर्ण का जबलपुर ताम्रपत्र लेख , चाहमान विग्रहराज का दिल्ली शिवालिक स्तंभ लेख, आदि प्रमुख रुप से उल्लेखनीय है राजपूत शासकों के अधीन सामंत के भी बहु संख्यक लेख लिखते हैं ।पूर्व मध्यकाल में बहुसंख्यक भूमि अनुदान पत्र मिलते हैं ।
जिनमें प्रशासन के सामंती की स्वरूप की सूचना मिलती है ।दक्षिण भारत में शासन करने वाले पल्लव और चोल आदि प्रसिद्ध राजवंश आदि के भी अनेक लेख प्राप्त हुए हैं जिनसे उनके इतिहास की विस्तृत जानकारी मिलती है
मुद्राये - अभिलेखों के अतिरिक्त प्राचीन राजाओं द्वारा ढलवाएं गये सिक्को से भी प्रचुर प्राचीन एतिहासिक सामग्री उपलब्ध होती है । यद्यपि भारत में सिक्को की प्राचीनता आठवीं शती पूर्व तक जाती है तथापि ईसा पूर्व छठी शताब्दी से हमें नियमित सिक्के मिलने लगते हैं ।प्राचीनतम सिक्को को आहत सिक्के कहा जाता है। उन्ही को साहित्य में कार्षापण, पुराण, धरण, शतमान, आदि भी कहा गया है यह अधिकांश चांदी के टुकडे हैं जिन पर विभिन्न आकृतियां की चिन्हित की गयी है इनपर लेख नहीं मिलते ।
सर्वप्रथम सिक्कों पर लेख लिखवाने का कार्य यवन शासको ने किया ।उन्होंने उत्तर में सोने के सिक्के चलवाए साधारणत: 206 ई.पु.से लेकर 300ई तक के भारतीय इतिहास का ज्ञान हमें मुख्य रूप से मुद्राओ की सहायता से ही होता है ।कुछ मुद्राओं पर तिथियाँ भी खुदी हुई है जो कालाक्रम के निर्धारण में बड़ी सहायक है । मुद्राओं से तत्कालीन आर्थिक दशा तथा संबंधित राजाओं के साम्राज्य की सीमा का ज्ञान हो जाता है ।
किसी काल में सिक्कों की बहुलता देख कर हम यह निष्कर्ष निकालते हैं उसमें व्यापार वाणिज्य अत्यंत ही विकसित दशा में था। सिक्कों की कमी को व्यापार वाणिज्य की अवनति का सूचक माना जाता है पूर्व मध्यकाल में प्रथम चरण में सिक्को का आभाव सा है इसी आधार पर यह काम आर्थिक पतन का काल माना गया है उसके विपरीत द्वितीय चरण में सिक्को के मिल जाने पर हम निष्कर्ष निकालते हैं कि इस समय व्यापार वाणिज्य का पुनरुत्थान हुआ।
जिससे देश आर्थिक रुप से समृद्ध हो गया प्राचीन भारत के गणराज्य का अस्तित्व मुद्राओं से ही प्रमाणित होता है ।
मालव , यौधेय, आदि गणराज्य तथा पांचाल के मित्रवंशी शासको के विषय में हम मुख्य रूप से सिक्को से ही ज्ञान प्राप्त करते हैं ।
कभी-कभी मुद्रा के अध्ययन से हमें सम्राटों के धर्म तथा उसकी व्यक्तिगत गुणों का पता लग जाता है उदाहरण कनिष्क तथा समुद्रगुप्त की मुद्राओं को ले सकते नहीं कनिष्क के सिक्को से यह पता चलता है कि वह बौद्ध धर्म का अनुयाई था तथा समुद्रगुप्त की कुछ मुद्राओं पर भी वीणा बजाते हुए दिखाया गया है जिससे उसका संगीत प्रेम प्रकट होता है भारत में इंडो- बैक्ट्रिन शासको विषय में हमें उन के सिक्कों से ही ज्ञात होता है ।
इंडो -यूनानी तथा इंडो- सीथियन शासकों के इतिहास का प्रमुख स्रोत सिक्का ही है । शक पल्लव युग की उनकी मुद्राओं से उनका शासन पद्धति का ज्ञान होता है सिक्को से पता चलता है कि पल्लव राजा अपने गवर्नर के साथ शासन करते थे ।
समुद्रगुप्त तथा कुमारगुप्त की अश्वमेघ शैली की मुद्राओं में अश्वमेघ यज्ञ की सूचना मिलती है । सातवाहन नरेश सातकरणी की एक मुद्रा पर जलपोत का चित्र उत्कीर्ण है जिससे ऐसा अनुमान लगाया जाता है कि उसने समुद्र विजय की थी इसी प्रकार चंद्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य व्याघ्र शैली मुद्राओं से उसके पश्चिम भारत (गुजरात काठियावाड़ ) के शको के विजय को सूचित करती है।
स्मारक- इसके अंतर्गत प्राचीन इमारतें मंदिर ,मूर्तियां आती हैं उनसे विभिन्न युगों की सामाजिक धार्मिक तथा आर्थिक परिस्थितियों का बोध होता है इनके अध्ययन से भारतीय कला के विकास का भी ज्ञान प्राप्त होता है , मंदिर बिहारो , बौद्ध स्तूपो से जनता की अध्यात्मिकता तथा धर्मनिष्ठा का पता चलता है हड़प्पा और मोहनजोदड़ो की खुदाइयों से पांच सहस्त्र वर्ष पुरानी सेंधव सभ्यता का पता चला है खुदाई के अन्य प्रमुख स्थल तक्षशिला, मथुरा ,सारनाथ ,पाटिलपुत्र, नालंदा ,राजग्रह ,साँची और भरहुत है । प्रयाग विश्वविद्यालय के तत्वाधान में कौशांबी में व्यापक पैमाने पर खुदाई की गई है यहां से उदयन का राज्यप्रसाद एवम् घोषिताराम नामक एक विहार मिला है ।
अतरंजीखेड़ा आज की खुदाइयों से पता चलता है कि देश में लोहे का प्रयोग ईसा पूर्व एक हजार के लगभग प्रारंभ हो गया था ।
इसी प्रकार दक्षिण भारत में कई स्थानों की खुदाई की गई पांडिचेरी के समीप स्थित अरिकमेडु नामक स्थान की खुदाई से रोमन सिक्के , दीप का टुकड़ा, बर्तन आदि मिलते हैं जिनसे पता चलता है कि ईशा की प्रारंभिक सतियों में रोम तथा दक्षिण भारत के बीच घनिष्ठ व्यापारिक संबंध था ।
देवगढ़( झांसी) का मंदिर , भीतरगांव का मंदिर ,अजंता की गुफाओं के चित्र ,नालंदा की बुद्ध ताम्रमूर्ति आदि से हिंदू कला एवं सभ्यता के प्रयाप्त विकसित होने के प्रमाण मिलते हैं ।
दक्षिण भारत से भी आनेक स्मारक प्राप्त हुए हैं तंजौर का राजराजेश्वर मंदिर द्रविण शैली का सबसे अच्छा उदाहरण है । पल्लव काल के भी कई मंदिर प्राप्त किए गए हैं ।खजुराहो तथा उड़ीसा से प्राप्त बहुसंख्यक मंदिर हिंदू वास्तु एवं स्थापत्य के उत्कृष्ट स्वरूप को प्रकट करते हैं ।
भारत के अतिरिक्त दक्षिण पूर्व एशिया में अनेक दीपो से हिंदू संस्कृति से संबंधित स्मारक मिलते हैं जिसमें मुख्य रुप से जावा का बोरोबुदुर स्तूप तथा कंबोडिया के अंकोरवाट मंदिर का उल्लेख किया जा सकता है इसी प्रकार मलाया ,बोर्नियो ,आदि से हिंदू संस्कृति से संबंधित अनेक स्मारक प्राप्त हुए हैं जिनसे इन दीपो में हिंदू संस्कृति के प्रयाप्त रूप से विकसित होने के प्रमाण मिलते है ।
इस प्रकार भारतीय साहित्य ,विदेशी यात्रियों के विवरण तथा पुरातत्व इन तीनों के सम्मिलित साक्ष्य के आधार पर हम भारत के प्राचीन इतिहास का पुनर्निर्माण कर सकते हैं
इतिहास जानने के पुरातात्विक स्रोत
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