Wednesday, September 13, 2017

भिन्नता में एकता

भारत एक विशाल देश है जहां प्राकृतिक एवं सामाजिक स्तर की अनेक विषमताएं दृष्टिगोचर होती है। एक ओर उतुंग शिखर है तो दूसरी ओर नीचे मैदान हूं एक ओर  उर्वर प्रदेश है तो दूसरी ओर विशाल रेगिस्तान है ।
यहां सभी प्रकार की जलवायु पाई जाती है तथा प्राणियों एवं वनस्पतियों की संख्या विश्व में सबसे अधिक है । कुछ भागों में घनघोर वर्षा होती है तो कुछ भाग नाम मात्र की वर्ष प्राप्त करते हैं ।भारत में विश्व के प्रायः सभी प्रमुख धर्मों के लोग निवास करते हैं ।यहां के लोगों की भाषाएं विभिन्न विभिन्न है ।

यह समस्त विषमताएं किसी भी बाहरी परिवेक्षक को खटक सकती है तथा उसे यह संदेह हो सकता है कि भारत एक ना होकर छोटे-छोटे खंडों का विशाल समूह है । यहां प्रदेश की अपनी अलग अलग संस्कृति  इन प्राकृतिक एवं सामाजिक स्तर की विभिन्नता के मध्य एकता की एक अविच्छिन्न कड़ी है । जिसकी हम उपेक्षा नहीं कर सकते।

हार्वर्ड रिजले ने उचित लिखा है - कि भारत में अनेक प्राकृतिक एवं सामाजिक विविधताओं भाषा तथा तथा धार्मिक विभिन्नता के बीच हिमालय से कन्याकुमारी तक एक निश्चित आधारभूत समरूपता अभी भी देखी जा सकती है ।

वस्तुतः यहां एक समान भारतीय चरित्र एवं व्यक्तित्व है जिसे हम घटकों में विभाजित कर सकते हैं ।भारतीय संस्कृति के आधारभूत एकता हमें निम्नलिखित समूहों में देखने को मिलती है-

(1) भौगोलिक एकता
प्रकृति ने भारत को एक विशेष भौगोलिक इकाई प्रदान की है उत्तर में  हिमालय पर्वत  ऊंची दीवार के समान इसकी रक्षा करता है इसके पूर्व पश्चिम एवं दक्षिण में विशाल सागर है देश की इन प्राकृतिक सीमाओं ने यहां के निवासियों के मस्तिष्क में सामान मातृभूमि के निवासी होने का भाव जागृत किया है ।

बर्बर एवं खानाबदोश जातियां कभी-कभी संस्कृति का विकास नहीं कर पाती है । हिब्रूओं की संस्कृति के विकास में सबसे बड़ी बाधा यही रही है उनकी कोई सुनिश्चित भूमि नहीं थी । भूमि का देश के लिए वही महत्व है जो मनुष्य के लिए उसके शरीर का होता है और राष्ट्र निर्माण के तत्वों में भूमि प्रधान एवं महत्वपूर्ण है तथा भारतीय संस्कृति के विकास के लिए प्रथमतया  भूमि ही उत्तरदाई रहा है भारत के निवासियों ने प्रारंभ से ही उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में समुद्र तक तक की विशाल भूखंड को अपनी मातृभूमि माना है प्राचीन साहित्य में स्थान स्थान पर  एकता के दर्शन होते हैं

विष्णुपुराण में स्पष्ट वर्णित है - उत्तर में हिमालय तथा दक्षिण में समुद्र के बीच जो भूखंड है वह भारतवर्ष हैं तथा वहां की संताने भारती है ।

(2) राजनैतिक एकता

भूमि की एकता की अवधारणा ने राजनीतिक एकता को प्रोत्साहन प्रदान किया ।यहां के महान सम्राटों ने इसे चरितार्थ करने का सफल प्रयास किया ।प्राचीन ग्रंथों में सम्राटों के लिए एकराट, राजाधिराज ,जैसे विरुदो  का प्रयोग मिलता है ।
कौटिल्य ने अर्थशास्त्र में हिमालय से लेकर समुद्र तट तक विस्तृत सहस्त्र योजन भूमि को चक्रवर्ती सम्राट का क्षेत्र बताया है ,। राजसुय , बाजपेई ,अश्वमेघ जैसे वैदिक यज्ञ अनुष्ठान का विधान चक्रवर्ती सम्राटों के लिए किया गया है ।प्राचीन इतिहास के प्रतिनिधि महान सम्राट हो जैसे चंद्रगुप्त मौर्य अशोक समुद्रगुप्त चंद्रगुप्त द्वितीय आज के मस्तिष्क में एकता का यही आदर्श रहा है जिन्होंने अपनी विजयों द्वारा इसे यथार्थ रूप से प्राप्त करने का प्रयास किया ।

(3)सांस्कृतिक एकता

भौगोलिक कथा राजनैतिक एकता के साथ साथ हमें भारतीय उपमहाद्वीप में धर्म, भाषा एवं साहित्य तथा सामाजिक परंपरा की भी एकता दिखाई देती है प्राचीन साहित्य में भारत को सात नदियों -गंगा ,यमुना ,गोदावरी ,सरस्वती ,नर्मदे ,सिंधु तथा कावेरी एवं

सात पवित्र नगरियाँ- मथुरा ,अयोध्या ,माया ,काशी कांची ,अवंतिका तथा द्वारावती की भूमि मानकर प्रार्थना करने का उपदेश दिया गया है । स्नान  के समय श्लोक पढ़कर साथ नदियों का आह्वान किया जाता था।
महाभारत के  नवपर्वो में वर्णन मिलता है कि तीर्थों में जाने का पूर्ण यज्ञ से भी अधिक है जो पुण्य दक्षिणा वाले आदमी अग्निष्टोम यज्ञ को करने से भी नहीं मिलता वह तीर्थ जाने से प्राप्त होता है इस अवधारणा ने भी भारतीय एकता को सुदृण किया।

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