सभ्यता एवं संस्कृति इन दोनों शब्दों का प्रयोग आजकल सामान्य अर्थों में किया जा रहा है सामान्यतया सभ्यता से तात्पर्य मनुष्य की उपलब्धियों से है।
मनुष्य ने देश और काल में विश्व के धरातल पर मन में जो सोचा है कर्म से किया है तथा भोतिक माध्यम से निर्मित किया है उसे ही सभ्यता की सामान्य संज्ञा दी जाती है ।
सभ्यता शब्द संस्कृत के सभा से बना है जिसका शाब्दिक अर्थ सभा अथवा समाज के योग्य ।
इससे तात्पर्य विनम्रता सुशीलता अथवा कुलीनता से माना गया है ।
संस्कृति - शब्द कृ धातु में सम उपसर्ग तथा क्तिन प्रत्यय लगने से बना हुआ है । जिसका अर्थ होता है वह कार्य जो भली भांति किया गया हो तथा वह विभूषित हो एवं अलंकृत भी हो ।
स्पष्ट होता है कि जहां सभ्यता भौतिक प्रगति की अवस्था को सूचित करती है वही संस्कृति बौद्धिक तथा आत्मिक प्रगति का सूचक है सभ्यता दृश्य एवं संस्कृति अदृश्य होती है
भारतीय संस्कृति के अध्ययन के स्रोत -भारतीय संस्कृत के अध्ययन के स्रोत व आधार वही है जो भारत के इतिहास के
(1) साहित्यिक स्रोत
(2) विदेशी विवरण
(3) पुरातत्व
भारतीय संस्कृति की विशेषता -भारतीय संस्कृति की कुछ ऐसी विशेषताएं हैं जो विश्व की किसी भी संस्कृति में दृष्टिगत नहीं होती अपने विशिष्ट तत्व के कारण ही भारतीय संस्कृति ने विश्व में अपनी महत्ता बनाए रखी है
इसकी विशेषताएं निम्न है
(1) प्राचीनता - भारतीय सभ्यता का उदय एवं विकास ईशा के कई सदियों पूर्व हुआ प्रागैतिहासिक उपकरणों से पता चलता है कि विश्व के अन्य भागों के साथ ही भारत में मानव संस्कृति का उद्भव हुआ।
यूनान रोम आदि देशो में सभ्यता का प्रादुर्भाव भारत के बहुत बाद में हुआ ।
(2) निरंतरता एवं चिरस्थाईता -
भारतीय संस्कृति में प्राचीनता के साथ साथ ही निरंतरता एवं चिरस्थाईता भी है जो विश्व की अन्य संस्कृतियों में दृष्टिगोचर नहीं होती मिश्र, सुमेर ,अककाद, बेबीलॉन, असीरिया तथा ईरान की संस्कृतियों का अस्तित्व बहुत पहले ही समाप्त हो चुका है ।
मिस्र ,मेसोपोटामिया की संस्कृति का आज के आधुनिक निवासियों से कोई संबंध नहीं है । वो आज अतीत की कहानियां मात्र है किंतु यह भारत संस्कृति के लिए लागू नहीं होती है भारत का अतीत उनके वर्तमान जीवन से अविछिन रूप से संबन्धित है । इस संस्कृति के मूल तत्व इतने स्थाई है कि समय का प्रभाव एवं प्रहार इन्हें विलुप्त नहीं कर पाया।
शताब्दियों के परिवर्तन के बावजूद भारतीय संस्कृति की आत्मा समान रही है
(3) अध्यात्मिकता-
आध्यात्मिकता तथा धार्मिकता एक प्रकार से भारतीय संस्कृति का प्राण है जिसने इसके सभी अंगो को प्रभावित किया है प्राचीन भारतीयों ने देहिक महत्व समझते हुए भी उन्हें अपने जीवन पद्धति में गौण स्थान प्रदान किया ।
प्राचीन समाज में पुरुषार्थों का विधान एवं आश्रम व्यवस्था का प्रतिपादन मनुष्य की आध्यात्मिक साधना के ही प्रतीक है ।जीवन का चरम लक्ष्य मोक्ष की प्राप्ति है तथा अन्य सभी पुरुषार्थ धर्म अर्थ एवं काम इस में सहायक हैं ।इनमें धर्म की प्रमुखता दी गई है जो जीवन की सभी अवस्थाओं में व्यक्ति की क्रिया को प्रेरित तथा प्रभावित करता है ।
(4) ग्रहणशीलता
भारतीय संस्कृत की एक विशेषता उसकी ग्रहणशीलता है उसमें प्रतिकूल परिस्थितियों में अपने अनुकूल बनाकर अपने में समाहित कर लेने की अद्भुत शक्ति है। ऐतिहासिक काल से लेकर मध्य काल के पूर्व तक भारत पर अनेक जातियों ने आक्रमण किया इसमें यव्न, शक, कुषाण , हुण आदि प्रमुख है ।भारतीय संस्कृत ने पहले तो इनके प्रबल प्रहार को शांति एवं गंभीरता से झेला और फिर क्रमश: विदेशियों को अपनी धारा में प्रवाहित कर लिया ।
उन्होंने ब्राह्मण तथा बौद्ध धर्म को ग्रहण किया तथा भारतीय संस्कृत के प्रचारक और उन्नायक बन गये . शक महा क्षत्रप रुद्रदामन वैदिक धर्म एवं संस्कृति का पोषक था जबकि कुषाण शासक कनिष्क ने न केवल बौद्ध धर्म ग्रहण किया अपितु उसके प्रचार प्रसार में अपने साम्राज्य के सभी साधनों को भी लगा दिया। हिंद- यवन मिलिंद ने बौद्ध संघ से आहत पद प्राप्त किया क्रूर एवं बर्बर हुणो ने शैव धर्म ग्रहण किया ।पूर्व मध्यकाल के तुर्क भी भारतीय संस्कृति के प्रभाव से नहीं बच सके यह सब संस्कृत की ग्रहणशीलता का परिणाम था ।
(5)समन्वयवादीता
भारतीय संस्कृति समन्वयवादी है प्राचीन समय से ही अनंत वेदों के बीच वैचारिक एकता तथा समानता की स्वीकृति की बात कही गई है ऋग्वेद में ऋषि यों ने इस संबंध में अपना मंतव्य प्रकट करते हुए स्पष्ट लिखा है सामान मंत्र ,समान समित ,सामान मंच , सामान सब की प्रेरणा ,समान सबके हृदय ,समान सबके मानस, समान सब की स्थिति ,भारतीय मनीषियों अतिवादी विचारधाराओं का विरोध किया तथा मध्यम मार्ग का उपदेश दिया ।
(6)धार्मिक सहिष्णुता
भारतीय संस्कृति धार्मिक विषय में सहिष्णुता का उपदेश देती है धर्मांधता एवं संकुचित मनोवृति इसमें नहीं मिलती।
प्राचीन भारत में धर्म के नाम पर अत्याचार एवं रक्तपातनहीं हुआ करते थे ।प्राचीन मनीषा ने ईश्वर को एक सर्वव्यापी सर्वशक्तिमान आदि मानते हुए विभिन्न धर्मों एवम् मतों को ईश्वर तक पहुंचने का विभिन्न विभिन्न मार्ग बताया है।
ऋगुवेद में कहा गया है कि सत अर्थात ब्रह्मा एक है । किन्तु ज्ञानी लोग उनका विविध प्रकार से वर्णन करते हैं एक सद विप्रा बहुधा वदंति
गीता में कृष्ण कहते हैं हे अर्जुन सभी मनुष्य मेरे ही मार्ग का अनुसरण करते हैं ।
(7) सर्वांगींणता
भारतीय संस्कृति मानव जीवन की सभी पक्षों के सम्यक विकास पर बल देती है ।मैक्स मूलर जैसे कुछ पाश्चात्य विचारकों की धारणा है कि प्राचीन भारतीयों के लिए भौतिक जीवन स्वप्न एवं शांति के समान है। किंतु इस प्रकार का विचार तर्कसंगत नहीं लगता वास्तविकता यह है कि प्राचीन भारतीयों ने भौतिक सुखों के महत्व को भी समझा तथा उनकी उपेक्षा नहीं की । यह सही है कि भारतीय जीवन के सभी पक्ष धर्म से अनुप्राणित है परंतु इसका अर्थ यह नहीं कि धर्म का संबंध मात्र पारलौकिक सुखो से ही था ।
(8) सार्वभौमिकता
भारतीय संस्कृति में सार्वभौमिकता मिलती है इसमें अपनी उन्नति के साथ साथ समस्त विश्व के कल्याण की कामना की गई है । वैदिक काल से ही भारतीय मनीषियों में संपूर्ण विश्व को एक मानकर विश्वबंधुत्व एवं वसुधेव कुटुंबकम जैसे उद्धात सिद्धांतों का प्रथम उद्घोष करते हुए सार्वभौमिकता के सिद्धांत का प्रतिपादन किया ।उन्होंने केवल मानव जाति ही नहीं अपितु प्राणी मात्र के कल्याण की चिंता व्यक्त की । ईश्वर से प्रार्थना की कि वह विश्व को अंधकार से प्रकाश, असत से सत तथा नश्वरता से अमरता की ओर अग्रसर करें । यह भारतीय संस्कृत की घाती है जो विश्व की अन्य संस्कृतियों में दुर्लभ है।
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